व्यास गद्दी पर गोकर्ण जी विराजमान हुए और कथा प्ररम्भ हुई, प्रेत रूप में धुन्धुकारी भी कथा श्रवण हेतु वहां आ गया और कथा स्थल पर अपने बैठने के लिये स्थान तलासने लगा परन्तु प्रेत चूंकि वायु रूप में था उसका कोई भौतिक आकार नहीं था इसलिये वह कहीं स्थिर नहीं हो पा रहा था, प्रेत को कथा स्थल पर रखा एक बांस दिखाई पड़ गया बांस बहुत बड़ा नहीं था हां सात गांठें थी उस बांस में , बांस आप सभी ने आवश्य देखा होगा बांस भीतर से खोखला होता है परन्तु उसका अन्दर का खोखला भाग बीच बीच में गांठ वाली जगह से बन्द होता है इसी तरह के सात गांठों वाले बांस के नीचे से खोखले खुले भाग में प्रेत घुस गया और वहीं से उसने पहले दिन की कथा श्रवण की,,,,,,
सायंकाल जब प्रथम दिवस की कथा ने विश्राम लिया तो बहुत आश्चर्य चकित करने वाली बात हुई, सात गांठों वाले बांस में सबसे नीचे के खोखले भाग में बैठकर प्रेत ने कथा सुनी कथा के विश्राम के समय बांस की सबसे नीचे वाली गांठ तड़-तड़ की आवाज के साथ फ़ट गई जिससे प्रेत बांस के सबसे नीचे वाले भाव से ऊपर वाले भाग में प्रवेश कर गया, इसी तरह दूसरे दिन की कथा के विश्राम के समय दूसरी गांठ फ़ट गई तीसरे दिन तीसरी और कथा के सातवें दिन पूर्णाहूति के समय बांस की सातवीं गांठ फ़टी और प्रेत बांस के ऊपरी भाग से मुक्त होकर प्रकट हुआ भागवान के पार्षद जिस वेश में रहते हैं उसी वेष में धुन्धुकारी प्रकट हुआ, सुन्दर शरीर पीताम्बर धारण किये हुए कानों में कुण्डल सुशोभित हो रहे थे, सिर पर सुन्दर मनोहर मुकुट शोभायमान हो रहा था, धुन्धुकारी ने अपने भाई गोकर्ण को प्रणाम किया और बोला, "भाई आपने मुझे प्रेत योनी की यातनाओं से मुक्त कर दिया है यह भागवत कथा धन्य है जो पापों को जलाकर नष्ट कर देती है"
कथा के इस प्रभाव के देख कर समस्त पाप थर्थराने लगे, कथा का तत्व ज्ञान यह संकेत करता है कि भागवत कथा मनुष्य के समस्त बंधनों से मुक्ति प्रदान कराती है, मनुष्य काम क्रोध आदि सात बंधनों में फ़ंसा है जिनसे यह कथा मुक्ति प्रदान करा देती है, मनुष्य इस अनित्य शरीर के मोह में बंधा रहता है कौन से शरीर के मोह में जो अनित्य है, जिसकी स्थिति का कोई निश्चय नहीं है, जो नाशवान है नित्य मृत्यु की ओर बढ रहा है, उस शरीर को खिला पिला कर मनुष्य मजबूत बनाने में लगा रहता है जब कि वह भलीभांति जानता है कि "आखिर यह तन खाक मिलेगा"
जानता है परन्तु मानता नहीं है, यही है मोह जो सदैव नहीं रहता है उस शरीर को मजबूत बनाने में लगा है और परमात्मा की कथा नहीं सुनता ......
जगत में मनुष्य फ़ंसा है जगदीश से उसे कोई लगाव नहीं है......
यह शरीर जिसका आधार इसकी हड्डियां हैं, नस नाड़ी रूपी रस्सियों से ये बंधा हुआ है, इस पर मांस थोप दिया गया है रक्त भर दिया गया है और ऊपर से इसे खाल से मढ दिया गया है, इसके हर हिस्से से बदबू आती है, यह मल मूत्र का भण्डार ही तो है, बृद्धावस्था में ये शरीर दुख का कारण बन जाता है जब इसे तमाम रोग घेर लेते हैं यह शरीर निरन्तर कामनाओं से गृसित रहा, इसे कभी तृप्ति नहीं मिली,,,,
जिस अन्न से शरीर की पुष्टि करते हैं मनुष्य वह भोजन सुबह पकाया जाता है, शाम तक यदि वह भोजन बचा रहे तो वह खराब हो जाता है तो फ़िर उस अन्न से पुष्ट होने वाला शरीर कैसे सदैव कायम रह सकता है,,,,,,
परमात्मा की कथा भक्ति और श्रद्धा पूर्वक श्रवण करने से परमात्मा के प्रति समर्पण का प्राकट्य हो जाता है और कानों से परमात्मा की कथा हृदय में प्रवेश करती है जिससे मनुष्य का हृदय पवित्र हो जाता है उसके जन्म-जन्मान्तर के किये पाप कर्म समाप्त हो जाते हैं पूरे शरीर का पवित्रीकरण हो जाता है भक्ति देवी मनुष्य की चित्त वृत्तियों को पवित्रतम कर देती हैं ज्ञान और वैराग्य का जन्म हो जाता है, मनुष्य स्वयं परमात्मा के गुणों से युक्त हो जाता है और परमानन्द की उच्च अवस्था में स्थापित हो जाता है, सभी प्रकार की वासनाओं, कामनाओं, तृष्णाओं आदि से मुक्त ब्रम्हानन्द की स्थिति में स्थापित हो जाता है I
कथा के पूर्णाहूति के पश्चात धुन्धुकारी को लेने के लिये एक विमान से भगवान के पार्षद आये, धुन्धुकारी विमान में चढ गया, तभी गोकर्ण जी ने भगवान के पार्षदों से कहा, "हे भगवान के प्रिय पार्षदों यहां इस पुण्यप्रदायिनी कथा का श्रवण बहुत से लोगों द्वार किया गया है फ़िर आप सिर्फ़ एक विमान लेकर क्यों आये?"
गोकर्ण जी की बातें सुनकर पार्षदों ने कहा, "यह तो कथा श्रवण के भेद का प्रभाव है, ये सत्य है कि कथा का श्रवण सभी ने किया है, परन्तु धुन्धुकारी जैसा कथा का मनन किसी ने नहीं किया, धुन्धुकारी ने परमरकाग्रता की अवस्था में कथा का श्रवण किया है, निराहार रहते हुए कथा का श्रवण किया है और हृदय के पूर्ण समर्पित भाव से कीर्तन किया है, धुन्धुकारी की कथा श्रवण की जो परम स्थिति थी उसके कारण यह फ़ल उन्हें प्राप्त हो रहा है, यह भी सत्य है कि बाकी सभी श्रोताओं ने भी भक्ति पूर्वक कथा श्रवण की है परन्तु धुन्धुकारी के समान समर्पित और पवित्र हृदय से श्रवण उन्होने नहीं किया है, परन्तु यदि निरनतर भक्त परमात्मा की कथा के रस का श्रवण करते रहेंगे तो बाकी सभी को भी यह चरम अवस्था की प्राप्ति आवश्य होगी, और उन्हे भी भक्ति द्वारा मुक्ति की प्राप्ति होगी"
ऐसा कहते हुए भगवान के पार्षद धुन्धुकारी को विमान द्वारा लेकर वैकुण्ठ चले गये...
कथा इस प्रकार कहती है कि उसके बाद सावन के महिने में गोकर्ण जी ने पुनः श्रीमदभागवत जी ज्ञान-भक्ति सप्ताह यज्ञ का आयोजन किया, सभी श्राताओं ने भाव भक्ति से परमात्मा की कथा का श्रवण किया, कथा की पूर्णाहूती के पश्चात बहुत से विमान प्रकट हुए स्वयं परमात्मा का भी प्राकट्य हुआ, भगवान द्वारा पांन्चजन्य नामक शंख की ध्वनि की गई, भक्तों ने परमात्मा की जय जयकार का घोष किया, भगवान ने गोकर्ण जी को अपने हृदय से लगा लिया, गोकर्ण जी तथा सभी भक्तों का स्वरूप परमात्मा के समान हो गया तथा सभी विमानों में सवार होकर वैकुण्ठ को चले गये..
ऐसा कहते हुए सनकादि, नारद जी से बोले, "नारद जी जिन श्रोताओं ने गोकर्ण जी के मुख से भागवत जी की कथा का एक शब्द भी सुना था वो सभी मुक्ति को प्राप्त हुए उन्हे पुनः इस मृत्यु लोक में जन्मना नहीं पड़ा, जिस उच्च फ़ल को प्राप्त करने के लिये योगी परम तप करते हैं भूखे रहते हैं पत्ते खाकर घोर तपस्या करते हैं, योगाभ्यास करते हैं वह फ़ल भागवत जी की कथा का श्रवण करने से प्राप्त होता है, इस कथा के श्रवण से समस्त संचित पाप जलकर भस्म हो जाते हैं, यह कथा परम पवित्र है इसके श्रवण से पित्रगणों की भी तृप्ति होती है"
कथा में गूढ तत्व ज्ञान छिपा है, कथा में कहा गया कि गोकर्ण जी के द्वारा कथा श्रवण करके सभी भक्तों का स्वरूप परमात्मा के जैसा हो गया, यहां कहने का तात्पर्य यह है कि जब मनुष्य भक्ति-भाव से पूर्ण समर्पित होकर परमात्मा की कथा का श्रवण करता है तो वह पूर्ण पवित्र हो जाता है उसका हृदय निर्मल हो जाता है, वासना-कामना, ईर्ष्या-द्वेष, आदि का समापन हो जाता है और वह परमात्मा के समान सत-चित-आनन्द स्वरूप हो जाता है.......
बोलिये श्री कृष्ण चन्द्र, माखन चोर रसिया की जय जय जय......
इस कथा के माध्यम से बहुत सहजता और सरसता से अध्यात्म को समझाने का एक सफ़ल प्रयास किया है भागवतकार ने ....
आत्मदेव की कथा इस धरती पर जन्में प्रत्येक मनुष्य की कथा है, प्रत्येक मनुष्य जो जन्मता है उसकी आत्मा अत्यन्त पवित्र होती है, परन्तु भौतिक जगत में वह जब भौतिकता और इन्द्रियों की जकड़ में फ़ंस जाता है तो उसकी बुद्धि धुन्धली हो जाती है और वह अपनी आत्मा की आवाज नहीं सुन पाता, इन्द्रियों की तृप्ति के प्रयास में भटकता रहता है और उसकी धुन्धली बुद्धि उसके पतन का कारण बन जाती है,
धुन्धकारी जो जगत की भौतिकता में निरन्तर द्र्व्य सुख और कामसुख के लिये चिन्तन और प्रयास करता रहता है, और अन्ततः वह पांच वैश्याओं अर्थात शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में फ़ंस जाता है और वही इन्द्रियां उसकी दुर्गती का कारण बन जाती हैं .....